द कश्मीर फाइल्स के लीड नायक की रियल कहानी:आतंकियों ने ड्रम में छिपे मेरे भाई का सीना छलनी कर दिया, भाभी और बच्ची को लाश पर रोने के लिए छोड़ दिया

कश्मीरी पंडितों के खिलाफ 19 मार्च, 1990 को हुई हिंसा से घाटी दहल उठी थी। इस आतंकी वारदात में बाल कृष्ण गंजू की भी हत्या कर दी गई थी। बाल कृष्ण के बड़े भाई शिबन कृष्ण गंजू कहते हैं, ‘द कश्मीर फाइल्स देखकर आप तो आज रोए, हम तो 32 साल से रोज जब भी आंखें बंद करते हैं, तो हमारा चार मंजिला घर सामने दिखने लगता है, चौथी मंजिल पर रखा वह चावल से भरा ड्रम और उसमें खून से लथपथ मेरे भाई का छलनी सीना दिखता है।

आतंकियों की गोली और पड़ोसियों की साजिश का शिकार हुए बाल कृष्ण गंजू (दाएं) और उनके सम्मान में बनाया गया समाधि स्थल।

द कश्मीर फाइल्स की स्टोरी जिस रील किरदार के चारों तरफ घूमती है, उसकी असल कहानी फिल्म से भी ज्यादा खौफनाक और रोंगटे खड़े करने वाली है। ड्रम में छिपे जिस शख्स की हत्या हुई, उसका नाम बाल कृष्ण था। सुबह करीब 8 बजे वह दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था, इस बात से बेखबर कि आतंकियों ने आज उसे निशाना बनाने की ठान रखी है। अगर यह काम केवल आतंकियों का होता तो बात अलग थी, क्योंकि उनका तो मकसद ही आतंक फैलाना है, लेकिन उसकी हत्या में पड़ोसी भी साझीदार थे।

बाल कृष्ण के बड़े भाई शिबन कृष्ण गंजू कहते हैं, ‘द कश्मीर फाइल्स देखकर तो आप आज रोए, जबकि हम तो 32 साल से उस वाकये को रोज महसूस करते हैं, आंखें बंद करते हैं तो वही खौफनाक मंजर हमारे सामने घूम जाता है।’

जब ये वाकया हुआ तब बाल कृष्ण लगभग 35 साल के रहे होंगे। उनकी एक बेटी भी है, जो उस समय लगभग दो साल की थी। उनके बड़े भाई शिबन अब 75 साल के हैं।https://www.bhaskar.com/__widgets__/iframe/poll/zRD1Cjk8xnog

​​​​​पड़ोसी दुश्मन न बनते तो भाई बच जाता

शिबन ने बताया, ‘सुबह-सुबह मेरा भाई दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। वह तीसरी मंजिल पर था, मेरी भाभी शायद दूसरी मंजिल पर। 4 लोग धड़धड़ाते हुए अंदर घुसे। मेरी भाभी से पूछा- तुम्हारा पति कहां है? उनके हाथों में गन थी। भाभी ने कहा, वह दफ्तर गए हैं। बाल कृष्ण नहीं मिला।

तब वे लौट गए। बाहर 2 लोग और खड़े थे। तभी हमारे पड़ोसियों ने, जो मुस्लिम थे, इशारे से बता दिया कि वह घर में ही छिपा है। मेरे पड़ोसी और मेरा घर एक ही लेवल पर था। उन्हें दिख रहा था कि मेरा भाई चौथी मंजिल पर है। आतंकियों ने चौथी मंजिल पर धावा बोल दिया। चावल से भरे ड्रम में छिपे भाई के सीने में 8 गोलियां दागीं। मेरे पास आज भी वह FIR रखी है।

खूंखार आतंकी बिट्टा कराटे हमारा पड़ोसी था। उसका असली नाम फारूक अहमद डार था। और भी कई लोग हमारे पड़ोसी थे। बाद में पता चला कि कई लोग इनमें से खूंखार आतंकी बन चुके हैं। हमारे पड़ोसी कब आतंकी बन गए हमें पता ही नहीं चला।

हत्या के बाद जब आतंकी नीचे उतरे तो मेरी भाभी और दो साल की बच्ची सहमे खड़े थे। उन्होंने कहा, वह मर गया है, जाओ उसे संभालो। मेरी भाभी ने कहा, अब हमें भी मार दो, हम जी कर क्या करेंगे? वे कितने क्रूर थे इसका अंदाजा उनके जवाब से लगाया जा सकता है। उनमें से एक आतंकी ने कहा, लाश पर कोई रोने वाला भी तो चाहिए।’

क्या आपकी भाभी ने बताया कि हत्या के बाद खून से सने चावल भी उन्हें खिलाए गए थे? इस सवाल पर शिबन ने कहा, ‘ऐसा कुछ मेरी जानकारी में नहीं है। और न कभी मेरी भाभी ने ऐसा कुछ बताया। हो सकता है ऐसा हुआ हो, हो सकता है न भी हुआ हो। फिल्म मैंने देखी नहीं, लेकिन मेरे जानने वालों में से जिसने भी देखी वह यही कह रहा है कि कहानी मेरे भाई की ही है। हालांकि फिल्म के डायरेक्टर या उनकी टीम में से किसी ने भी हमसे या हमारे परिवार से कोई संपर्क नहीं किया।’

मेरा भाई देश के लिए लॉयल था इसलिए मारा गया!

बाल (भाई के घर का नाम) एमटीएनएल में इंजीनियर था। उस इलाके में केंद्र सरकार और गवर्नर जगमोहन जी के साथ संपर्क का बस एक ही चैनल था- एमटीएनएल का टॉवर। मेरा भाई उस दफ्तर में केवल एक ही एक्सपर्ट था। वह इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर था। अगर वह चला जाता तो उस इलाके से सरकार और राज्यपाल के बीच का संपर्क टूट जाता। मैं उसे और उसके परिवार को 21 फरवरी, 1990 को लेने गया था। काफी दबाव के बाद उसने वहां से निकलने का मन भी बना लिया था, लेकिन 22 फरवरी को न जाने क्या हो गया। उसने कहा, मैं गया तो इस पूरे इलाके का संपर्क सरकार से टूट जाएगा। ऐसे खराब हालात में मैं यह नहीं होने दे सकता।

21-22 फरवरी 1990 को क्या हुआ था

श्रीनगर में हालात खराब हो रहे थे, मैं उधमसिंह नगर में रहता था। मैंने सोचा हालात बदतर हों उससे पहले भाई और भाभी को ले आऊं। 21 फरवरी को मैं बस से अपने घर के लिए रवाना हुआ। छोटा बाजार, कनी कदल करण नगर के करीब ही बस स्टैंड था, बस मुझे वहीं उतारने वाली थी, लेकिन ड्राइवर को कुछ पता चला उसने थोड़ी दूर पर मुझे छोड़ दिया। इस जगह का नाम था, बाराजुला।

मैं सहमा सा छिपते छिपाते, डरते-डरते ही पैदल वहां से घर के लिए निकल पड़ा। तभी देखता हूं, 10,000 से भी ज्यादा, जीप, कार, ट्रक वहां से गुजर रहे थे। उनमें सवार लोग जोर-जोर से नारे लगा रहे थे- हम क्या चाहते- पाकिस्तान।

किसी के हाथ में एक, तो किसी के हाथ में दो गन थीं। गाड़ियों में हथियार भरे थे। वे सब बाराजुला में हथियार डंप करने आए थे। मुझे लगा पाकिस्तान ने हमला कर दिया है। करीब डेढ़ घंटे तक मैं वहीं छिपा रहा। पौने 8 बजे मैं वहां से निकला, घर पहुंचा।

21 फरवरी की रात मैं वहीं रुका। मैंने कहा, बाल अब तुम सब मेरे साथ चलो। यहां कुछ भी ठीक नहीं है। वह कुछ- कुछ राजी भी हुआ, लेकिन सुबह न जाने उसकी किससे बात हुई। शायद गवर्नर और सेंट्रल गवर्नमेंट में किसी से बात हुई थी। उसने कहा, नहीं मैं नहीं जा सकता। अगर जाऊंगा तो इस इलाके का संपर्क बिल्कुल टूट जाएगा। हमने बहुत मनाया, वह नहीं माना। वह नहीं आया तो मेरी भाभी भी नहीं आई।

मेरे भाई ने कंपनी से सुरक्षा मांगी थी, पर उसे नहीं मिली

मुझे बाद में पता चला कि बाल ने कंपनी से सुरक्षा मांगी थी, लेकिन उसे मिली नहीं। हां, आखिर में लगातार हिंसा और हड़ताल बढ़ने पर उसे एमटीएनएल की जीप लेने और छोड़ने जरूर आती थी।

दोस्तों, पड़ोसियों ने दगा दिया 

मेरे भाई ने बताया था कि पड़ोसी और उसके दोस्तों ने उससे कहा है कि उसे कुछ नहीं होने देंगे। उसके कुछ दोस्त लोकल अखबार में भी थे। जर्नलिस्ट थे। सभी मुस्लिम थे। पर उसकी हत्या के दिन पड़ोसियों ने ही आतंकियों को मेरे भाई का पता दिया। उसके साथ उसके दोस्तों और पड़ोसियों ने धोखा किया।

Source :- Danik Bhaskar

Rohit:

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